
Thursday, December 31, 2009
Sunday, December 13, 2009
समझना....
किसी बात को समझना हो तो उस समझनें में आत्मा का अस्तित्व होना अतिआवश्यक होता हैं।
अगर हम बुद्धि का सहारा लेने जाए तो हमारीं सोच सिर्फ़ यांत्रिकीय सोच बनकर रह जातीं हैं।
आत्मा का अस्तित्व होना यानि उस बात को जी लेना।
और जब तक हम उस बात को जिन्दा होकर समझ न लें तो उस बात का असर कायम स्वरुप में नही रहता।
वास्तविकता में वह बात हमारीं समझ में ही नहीं आतीं, फिर चाहे भले ही हमें ऐसा अहसास होता हो की वह बात को हम भलीं भांति जान या समझ चुकें हैं, पर वास्तविकता में हम बिल्कुल भी उस बात को न जान चुकें होतें हैं, न ही समझ चुकें होतें हैं।
आत्मा का होना यानि हमारें जीवित होने की निशानी होतीं हैं।
जब आत्मा का सहारा लिया जाता हैं तो समझ लीजिये की भगवान् का सहारा लिया हो।
इसीलिए जब आत्मा को अपने भीतर जगाकर या आत्मा में ख़ुद मिलकर किसी बात को जी लिया जाय तो वह बात सदा के लिए हमारें भीतर बस जातीं हैं।
बस... आत्मा को अपने साथ हमेशा रखें तो जीवन की हर बात अनुकूल हो जातीं हैं।
आत्मा हमारीं सबसे बड़ी ताकद और संजीवनी होतीं हैं।
समझना.... आत्मा की अनुभूति जी लेना....
Thursday, December 3, 2009
महसूस....
महसूस करना यानि ख़ुद के विचारों तथा भावनाओं को जी लेना।
हमारें विचार हमारीं भावनाओं को प्रकट करतें हैं।
उसी तरह हमारीं भावनाएं भी हमारें विचारों को प्रकट करतीं हैं।
हम वही चाहतें हैं जो हम महसूस करतें हैं।
लेकिन क्या महसूस करना हमारें विचारों पर या हमारीं भावनाओं पर निर्भर करता हैं ?
जी नहीं, महसूस करना हमारें विचार तथा भावनाओं पर निर्भर नहीं करता।
यह तो एक एहसास होता हैं जो परिस्थिति पर निर्भर करता हैं की हम क्या और कैसे महसूस करें।
अगर कोई हमें याद कर रहा हो, तो वह उस माहोल या परिस्थिति पर निर्भर करता हैं की हम उस समय कैसा महसूस करें।
महसूस करना हमारीं आत्मा की गहराई पर ही निर्भर करता हैं।
जब हमारीं आत्मा की गहराई बढ़ जातीं हैं तब हम महसूस भी उसी गहराई से करतें हैं।
कितनें ऐसे विचार या भावनाएं होतीं हैं, जो हम चाह कर भी प्रकट नहीं कर सकतें।
बस, उन्हें हम महसूस कर के जी लेने की एक छोटी सी कोशिश कर लेतें हैं।
लेकिन उस कोशिश में हम जो महसूस करने की कोशिश करतें उस में हम कितनें कामियाब होतें हैं।
शायद हम कभी कामियाब नहीं होतें।
अगर हम हमारी आत्मा की आवाज़ सुन लें और उस बात को महसूस कर लें जो हम सही में महसूस करना चाहतें हैं, तो हम सही अर्थ में जीवन जी लेतें हैं।
आत्मा हमेशा सही और आवश्यक मार्ग ही बतलातीं और जब हम हमारीं आत्मा की आवाज़ सुन लें और आवश्यक कदम उठा लें तब जीवन की एक गहरीं मिठास हमें मिल जातीं हैं और हम अपना जीवन पूर्णता से जी लेतें हैं।
महसूस.... आत्मा के मार्ग से जीवन जीने का सरल मार्ग....
Wednesday, November 25, 2009

मासूमियत.... एक अनजान भावना होतीं हैं।
यह हर तरह की निष्पापता और खुशी होतीं हैं।
इसे महसूस करने में बड़ी खुशी मिलतीं हैं।
यह सुंदर तथा सरल होतीं हैं।
इसकी हर कृति में सुन्दरता तथा सहजता होतीं हैं।
इसमे सदभावना तथा सहायता होतीं हैं।
इसमें विश्वास और आत्मीयता होतीं हैं।
यह हर बातों से अनजान होतीं हैं।
इसे सिर्फ़ महसूस किया जा सकता हैं, इसे प्रकट करना कठिन होता हैं।
इसमें प्रेम, कोमलता और शालीनता होतीं हैं।
मासूमियत.... एक अनजान भावना....
Wednesday, November 4, 2009

Monday, November 2, 2009

शरारत....
शरारत.... एक प्यार भरा अहसास।
इसमें उमंग और उत्साह साथ साथ चलतें तथा मुस्कुरातें हैं।
इसमें आनंद की भावना हर घड़ी, हर पल होतीं हैं।
इसमें छेड़खानी की भावना सबसे आगे और सबसे प्रबल होतीं हैं।
इसमें शरारत के साथ साथ ख्याल भी होता हैं।
इसमें प्रेम की भावना हर पल हर घड़ी होतीं हैं।
इसमें मिठास प्रमाण से ज्यादा होतीं हैं।
छेड़खानी में ज्यादातर पवित्रता होतीं हैं।
यह पवित्रता आंखों से प्रमाणित होतीं हैं।
छेड़खानी का संबंध आत्मा से कब जुड़ जाता हैं पता ही नहीं चलता।
छेड़खानी में ज़िन्दगी के सारें गम कब भूल जातें कभी याद आतें हैं ?
छेड़खानी.... जिंदगी की एक अद्भुत कला....
Sunday, November 1, 2009

स्वभाव....
स्वभाव एक समझ की तरह होता हैं।
हम क्या होतें हैं, हम क्या महसूस करतें हैं, हम क्या चाहतें हैं, हम किस बात से प्रभावित होतें हैं यह सब हमारें स्वभाव से प्रकट होता हैं।
हमारा स्वभाव हमारें विचारों का दर्पण होता हैं।
हमारीं इच्छा, हमारा चाहना, हमारीं मिठास हमारें स्वभाव में ही छुपीं होतीं हैं।
हमारा प्रेम हमारीं आत्मा से बंधा होता हैं।
हमारें स्वभाव से एक समझ जुड़ी होतीं हैं।
हमारें स्वभाव में एक तरह की सादगी होतीं हैं जिसे ताडने वाले सही तरीके से ताड़ लेतें हैं।
स्वभाव में एक प्रकार की पवित्रता भी होतीं हैं।
हमारा स्वभाव हमारीं मासूमियत का परिमाण होता हैं।
स्वभाव.... हमारें व्यक्तिमत्व का दर्पण....
Tuesday, September 22, 2009
एक दौर....
हर जीवन में एक दौर होता हैं।
आइए आज इस दौर के बारें में कुछ बात करें।
आज उस दौर के बारें में बात करेंगे जब हम अपनी सफलता के चरम बिन्दु पर होतें हैं।
वह एक लय होतीं हैं।
यह एक मानसिकता का भाग होतीं हैं।
आज इसी लय के बारें में यानि मानसिकता के बारें में कुछ कहना चाहेंगे।
उच्च स्नातक करतें हुए एक बार "संध्यानंद" नामक अखबार में व्यक्तिमत्व विकास के बारें पढ़ रहें थे, उसमें लिखा था की अगर आप सफल व्यक्ति बनना चाहतें हो तो आप अपने आप से इतना ही कहो की "हम सफल बनकर ही रहेंगे"।
बस आप इतना कहकर अपने काम में लग जाइए, सफल कैसे बनना हैं इस मार्ग की ओर बुद्धि अपना काम करना शुरू कर देगी।
अब कैसे सफल होना हैं यह बुद्धि का काम हैं।
अब आप उस काम के बारें में यह सोचना बिल्कुल छोड़ दीजिए की ऐसा हुआ तो क्या करना हैं और वैसा हुआ तो क्या करना हैं, जिस काम में आप सफलता प्राप्त करना चाहतें हो।
क्यों की अगर आप इस बात में फंस गए तो सफलता को कभी भी प्राप्त नहीं कर पाओगे।
यह सब कुछ सौ प्रतिशत बुद्धि पर छोड़ दीजिए और फिर देखीए की बुद्धि अपना काम कैसे करतीं हैं।
जब आप इतना कर लोगे की बुद्धि को अपना काम करने दे और आप अपना, तो आप इसे चमत्कार कहें या कुछ और, पर आप देखोगे और अनुभव भी करोगे की आप उस लय को पा चुके हो जिस की आप को सफलता पाने के लिए ज़रूरत थी।
बस आप इतना कर लीजिए की क्या होगा, कैसे होगा, यह हुआ तो क्या करना हैं, वह हुआ तो क्या करना हैं, इस चक्कर से हमेशा दूर रहना हैं।
क्यों की यह वह चीज़ होतीं हैं जो आप को उस लय से हमेशा दूर रखतीं हैं।
एक बार इस बात पर प्रयास करनें में क्या हर्ज़ हैं ? हैं ना ?
सफलता की ओर बढाया हुआ एक सहज कदम ....
Monday, September 21, 2009
मानसिकता....
मानसिकता.... आइए आज मानसिकता के बारें में विचार करें।
कहतें हैं की कोशिश करनें से हर वह बात जो आप चाहतें हो मिल जातीं हैं।
पर यह बात कहा तक सत्य हैं आइए ज़रा देखें।
कोशिश करतें समय अगर कोशिश करनें की या कुछ पानें की भावना या मानसिकता न हो तो वह कोशिश किस हद तक सफल होगी ?
यानी कोशिश करतें समय सिर्फ़ कृती की ही नहीं बल्कि मानसिकता की तैयारी भी आवश्यक हैं।
पर सवाल यह हैं की यह मानसिकता कैसे बनाई जाए या बरक़रार रखी जाए ?
क्यों की मानसिकता वह चीज़ तो हैं नहीं की जब जी चाहा, जैसे जी चाहा उसके अनुरूप बना लीं।
यहीं वह बात हैं जो मनुष्य को सफलता की ओर ले भी जातीं हैं ओर सफलता से परें भी रखतीं हैं।
क्यों की मानसिकता पर ज़ोर नहीं चलता, यह नैसर्गिक रूप से बनतीं, सवरती तथा ढलती हैं।
मनुष्य के वश में हर बात तो नहीं होतीं ना...।
और इसमें भी बड़ी बात यह की अगर मानसिकता के बनने का इंतजार करो तो सालों बीत जातें हैं पर मानसिकता ज्यों की त्यों बनीं रहतीं हैं।
अगर ज़बरदस्ती से मानसिकता बनाने की कोशिश भी की जाए तो उस कोशिश में विश्वास नहीं होता, वह कब पत्तों की तरह बिखर जाए इस का भरोसा नहीं होता।
हर किताब में यह तो लिखा होता हैं की आत्मविश्वास होनें से मनुष्य यह कर सकता हैं, वह कर सकता हैं, पर आपनें कभी किसी किताब में यह पढ़ा हैं की आत्मविश्वास कैसे बनाया या बढाया जाता हैं ?
कभी कभी ऐसी किताबें भी खोखली बातों की तरह लगतीं हैं, जिनसे आप ना कुछ हासिल कर सकतें हों और ना ही कुछ बन सकतें हों।
और सबसे बढ़िया बात तो यह हैं की अगर आप मानसिकता के इस असहकार्य की वजह को खोजनें निकलें तो बस फिर तो पूछिए ही मत।
पता नहीं यह ऐसा क्यों होता हैं।
यह तो वही जान सकता हैं जो इस दौर से गुज़र चुका हों।
एक थका मुसाफिर....
Friday, September 11, 2009
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संभाषण....
अपनी बात को यथा योग्य तरीके से प्रकट करना "संभाषण" कहलाता हैं।
संभाषण करनें के कुछ नियम तो नहीं होतें, हाँ कुछ विवेक ज़रूर होतें हैं।
जब अपनी बात कहनी हो या प्रकट करनी हो तो सबसे पहले यह बात तो तय होनी चाहिए की जो बात हम कहने जा रहें हैं वह बात जिन्हें हम कहने जा रहें उन्हें वह बात पता नहीं हैं।
यह बात तब विशेष महत्वपूर्ण होतीं हैं जब हम किसी अजनबी व्यक्ति से बात कर रहें हो।
इसीलिए यथा योग्य बात कहना एक कौशल्य माना गया हैं।
यह एक अंदरूनी इच्छा से प्रकट हो जाता हैं।
यह एक नैसर्गिक देन भी हो सकतीं हैं।
मनमोहक बातें करना एक अंदरूनी कौशल्य हैं।
संभाषण से हमारें विचार तथा स्वभाव प्रकट होता हैं।
संभाषण.... एक नैसर्गिक कौशल्य....
Tuesday, September 8, 2009

कहना....
कहना.... योग्य तरह से, सही तरीके से किसी बात को व्यक्त करना या प्रकट करना "कहना" कहलाता हैं।
हर बात अपने ही तरीके से कही तथा व्यक्त की जाती हैं।
कभी कभी कुछ न कहने से भी बहोत कुछ कहा जा सकता हैं।
कभी कभी पुरी तरह न देखने से भी बहोत कुछ देखा तथा समझा जा सकता हैं।
यह सब सही तरीके से कहने तथा सही तरीके से देखने से होता हैं।
कहने की यानि प्रकट करने की अपनी अलग ही परिभाषा होतीं हैं।
और यह भाषा अंदरूनी रूप से ही उमड़कर आतीं हैं।
कहना.... आत्मा की अंदरूनी परिभाषा....
Monday, September 7, 2009

मन का खुलापन....
मन का खुलापन.... हर मन का एक ज़रुरीं हिस्सा।
मन का खुला होना हमारें स्वास्थ के लिए बड़ा प्रभावी माना गया हैं।
इससे स्वास्थ पर अच्छा परिणाम होता हैं।
मन के खुलें रहनें से मन तथा चित्त प्रसन्न रहतें हैं।
कहा जाता हैं की सर्व सिद्धियों को पानें के लियें मन का प्रसन्न होना बहोत ज़रुरीं होता हैं।
अगर दुसरें शब्दों में कहा जाए तो मन का प्रसन्न होना सर्व सिद्धियों को पानें का कारण बन जाता हैं।
प्रसन्न मन तथा चित्त स्वयं के साथ साथ दूसरो को भी प्रसन्न करता हैं।
मन का खुलापन.... ज़िन्दगी का एक खुशी भरा अहसास....
Friday, September 4, 2009

अंदाज़....
अंदाज़.... बात को प्रकट करने का एक तरीका होता हैं शायद इसे ही अंदाज़ कहतें हैं।
हर बात प्रकट करनें का एक सहज मार्ग होता हैं और वह बात उसी तरीके से प्रकट की जाए तो ही भातीं हैं।
उस की मिठास उसी अंदाज़ में प्रकट करने से होतीं हैं।
उस बात की सुन्दरता तथा निर्मलता उसी अंदाज़ में होतीं हैं।
अंदाज़.... बात की सत्यता को बनाए रखता हैं।
अंदाज़.... बात की अंदरूनी सत्यता....
Thursday, September 3, 2009

मनभावन....
मनभावन.... अंदरूनी प्रेम तथा आनंद की भावना होतीं हैं।
इसमें मन में बसी हुई एक प्रेम भरी, उल्हासित, निर्मल तथा पवित्र भावना होतीं हैं।
इसमें हर भाव आत्मा से प्रकट होता हैं।
विचारों का आदान-प्रदान आत्मा से सीधा आंखों तक होता हैं।
इसमें हर बात स्पष्ट होतीं हैं।
इसमें आत्मा का दर्पण झलकता हैं।
इसमें हर भाव स्पष्ट रूप से दिखाई देतें हैं।
इसमें सत्यता होतीं हैं, आत्मनिष्ठा होतीं हैं।
इसमें आत्मा का आनंद स्पष्ट रूप से झलकता तथा दिखाई देता हैं।
मनभावन.... आत्मा की आनंदभरी उड़ान....
Wednesday, September 2, 2009

सामर्थ्य....
सामर्थ्य.... वह होता हैं जो मनुष्य को सामर्थ्यशाली बनाएँ।
सामर्थ्य.... मनुष्य का सबसे मजबूत आधार होता हैं।
ऐसे ही सामर्थ्यों में से मौन भी एक बहोत ही बड़ा सामर्थ्य हैं।
मौन रखनें से आतंरिक शक्तियों का विकास होता हैं।
कहा जाता हैं की मनुष्य दो समय दौर्बल्य होता हैं, पहले तब जब कुछ कहना ज़रूरी होता हैं तब कुछ न कहना और दूसरा तब जब शांत रहना चाहिए तब कुछ कहना।
मौन रखनें से हम वह सब बातें सुन सकतें हैं जो ईश्वर हमसे कहना चाहतें हैं।
मौन रखनें से बहोत कुछ कहा जा सकता हैं।
मौन.... आतंरिक शक्तियों का स्रोत....
Tuesday, September 1, 2009

Monday, August 31, 2009

सादगी....
कुछ बातों को व्यक्त करना, कहना या लिखना सहज नहीं होता, शायद "सादगी" भी इन्हीं में शामिल हैं।
क्या यह तस्वीर वह सब बातें नहीं कहतीं जो हम "सादगी" के बारें में महसूस कर सकें, उसे जी सकें।
आज ज्यादा नहीं लिख पाएंगे बस महसूस करना चाहेंगे।
सच कहना चाहेंगे कल यात्रा करतें हुए ऐसी ही "सादगी" हमनें देखीं।
क्या इसे हम कभी व्यक्त कर सकतें हैं ?
"सादगी" हमेशा "सादगी" ही होतीं हैं।
सादगी.... बस.... सादगी ही होतीं हैं....
Wednesday, August 26, 2009

Tuesday, August 25, 2009

Monday, August 24, 2009

Thursday, August 20, 2009

मीत....
मीत....दिल की हर बात जो सहज रूप से समझ जाए।
अपने मीत को कोई बात कहने या समझाने की कभी ज़रूरत ही कहाँ पड़तीं हैं।
वह तो हर बात अपने दिल से, अपनी आत्मा से समझ जाता हैं।
आँखें हर बात अपने मीत से खुलकर तथा निर्मलता से कह देतीं हैं।
और मीत वह हर बात आसानी से पढ़ तथा समझ लेता हैं।
इसमें शब्द कम और आँखें तथा साँसे ज्यादा बोलतीं हैं।
इसमें हर नाता आत्मा से जूडा हुआ होता हैं।
मीत जैसे हमारा ही प्रतिबिम्ब होता हैं।
इस रिश्तें में हमेशा एक मिठास सी होतीं हैं।
मीत हमारीं हर बात कहने से पहले ही उसे जान लेता हैं।
मीत के साथ रहतें हुए हमेशा अपनापन लगता हैं।
मीत हमें अच्छी तरह जानता हैं।
मीत की हर बात में मिठास होतीं हैं।
मीत का सानिध्य हमेशा अपनासा लगता हैं।
मीत हमेशा साथ रहें, हमेशा पास रहें यहीं इच्छा होतीं हैं।
मीत हमेशा मीठा अहसास होता हैं।
मीत.... हमारा प्यारासा प्रतिबिम्ब....
Wednesday, August 19, 2009

प्रार्थना....
प्रार्थना.... मन तथा ह्रदय को पवित्र करती तथा पवित्र रखतीं हैं।
प्रार्थना से मन पवित्र बनता हैं।
प्रार्थना से मन सात्विक बनता हैं तथा मन की सात्विकता बनीं रहतीं हैं।
प्रार्थना से मन के विचार शुद्ध बनते हैं।
प्रार्थना से ह्रदय प्रफुल्लित बनता हैं तथा मस्तिष्क में शीतलता एवं शांतता आतीं हैं।
प्रार्थना मन में उच्च विचार लाती हैं।
प्रार्थना से आत्मिक संतोष मिलता हैं।
प्रार्थना से शुभ विचार मन में रहतें हैं।
प्रार्थना से जीवन में सात्विकता आने लगतीं हैं।
प्रार्थना से मन, ह्रदय तथा आत्मा प्रसन्न रहतें हैं
प्रार्थना से जीवन में उज्वलता आतीं हैं।
प्रार्थना से जीवन प्रकाशित हो उठता हैं।
प्रार्थना.... सभी सात्विक गुणों की शुरुआत....
Tuesday, August 18, 2009

खुशीं....
खुशीं.... आत्मा की प्रसन्नता होतीं हैं।
खुशीं.... जब हर घटना जो आत्मा चाहती हो और उस के अनुरूप वह घट जाए तब खुशीं की असली बुहार देखनें मिलतीं हैं।
खुशीं में हमेशा असलियत छुपीं होतीं हैं।
जो भी बात जब आत्मा चाहे तो वह बात शुभ एवं प्रसन्नदायक होतीं हैं।
इसीलिए जब आत्मा ने चाही हुई घटना जब घटतीं हैं तब खुशीं की बौछार उमड़ उठातीं हैं।
आत्मा की इच्छा पवित्र होतीं हैं।
इसमें प्रसन्नता झलकती हैं।
खुशीं हमेशा मासूम होतीं हैं।
खुशीं हमेशा हर बात से परें होतीं हैं।
खुशीं हमेशा निर्मल होतीं हैं।
खुशीं.... आत्मा की प्रसन्नता....
Monday, August 17, 2009

देखभाल....
देखभाल.... अपने मीत के लिए, अपने साथी के लिए आत्मा से निकलीं हुई परवाह की भावना होतीं हैं।
इसमें आत्मीयता होतीं हैं।
इसमें उमंग और उत्साह होता हैं।
इसमें लगाव होता हैं।
इसमें प्रतिबद्धता होतीं हैं।
इसमें महत्ता होतीं हैं।
इसमें प्रेम, आदर तथा सम्मान होता हैं।
इसमें आत्मिक लगाव होता हैं।
देखभाल.... एक प्यारी सी आत्मभावना....
Saturday, August 15, 2009

साथी....
साथी.... जिंदगी की एक ज़रूरत।
हर एक रिश्ता जो आत्मा से बनता हो वह "साथी" कहलाता हैं।
यह एक प्रतिबद्ध रिश्ता होता हैं।
इसमें एक नाता होता हैं जो हमेशा निभाया जाता हैं।
इसमें एक दूजे के प्रति स्नेह तथा ममता होतीं हैं।
इसमें एक दूजे के प्रति आदर तथा सम्मान होता हैं।
इस रिश्तें में गहराई होतीं हैं जो धीरे-धीरे बढ़तीं जाती हैं।
इसमें समर्पण भाव नैसर्गिक रूप से होता हैं।
अपने से पहले दूजे के प्रति जादा देखभाल की भावना होतीं हैं।
इस रिश्तें में प्रेम होता हैं।
इस रिश्तें में आतुरता होतीं हैं।
इस रिश्तें में सत्यता तथा गंभीरता होतीं हैं।
इस रिश्तें में अपनापन होता हैं।
इसमें भावुकता होतीं हैं।
इस रिश्तें में त्याग की भावना आत्मा से निकलतीं हैं।
इस रिश्तें में मित्रता होतीं हैं।
इस रिश्तें में प्यार होता हैं।
इसमें आत्मसंबंध होता हैं।
सबसे महत्वपूर्ण इसमें "विश्वास" नैसर्गिक रूप से होता हैं।
इसमें एकता होतीं हैं।
इस रिश्तें में जान होतीं हैं।
इसमें एक दूजे के प्रति मिठास होतीं हैं।
इस रिश्तें में मीठापन होता हैं।
साथी.... जिंदगी की सबसे बड़ी ज़रूरत....
Wednesday, August 12, 2009

दर्पण....
दर्पण अपने विचारों का प्रतिबिम्ब होता हैं।
दर्पण हमेशा विचारों के अनुकूल ही प्रतिबिम्ब दिखाता हैं।
दर्पण में प्रतिमाएं होती हैं, वह प्रतिमाएं जो हमारें विचारों को दर्शातीं हैं।
जैसे विचार होतें हैं उन्हीं के अनुरूप प्रतिमाएं दर्पण में दिखतीं हैं।
ये प्रतिमाएं नैसर्गिक होतीं हैं।
आत्मा की छबि विचारों के द्वारा दर्पण से प्रकट होतीं हैं।
आत्मा तो सहज रूप से विचारों को प्रकट कर देती हैं।
दर्पण.... आत्मा का विचारों द्वारा प्रकट होने वाला प्रतिबिम्ब....
Tuesday, August 11, 2009

साथ....
साथ.... एक इच्छा और एक ज़रूरत भी।
साथ आत्मा की अनुमति के बाद ही बनता हैं।
साथ में आत्मा की इच्छा और अनुमति दोनों की ज़रूरत होतीं हैं।
साथ.... एक मीठा और सुहावना सफर होता हैं।
साथ.... में एक मिठास और प्रेम दोनों होतें हैं।
साथ.... में अपनापन होता हैं।
इसमें आत्मा का एक अद्भुत रिश्ता होता हैं।
इसमें देखभाल भी साथ साथ चलतीं हैं।
इसमें लज्जा भी होतीं हैं।
साथ.... बस.... एक साथ होता हैं....
Monday, August 10, 2009

प्रेम....
एक प्यारी सी मिठास एक प्यारी सी मुस्कान के लिए.... हाँ.... बस.... यहीं हैं "प्रेम"।
जब रिश्ता आत्मा से बनता हो और उस आत्मा की आवाज़ जब आखों से गूंजती हुई ह्रदय में जाकर ज़ोर से कुछ स्पंदन कर रहीं हो, कुछ कह रही हों तो बस.... समझ लीजिए की प्यार की बरसात शुरू हो गई हैं।
जब उस मीठी मुस्कान की वजह से हर बात में जब मिठास आने लगें तो बस यही प्यार हैं।
जब वह मीठी मुस्कान हमेशा पास रहने का दिल और मन दोनों.... हाँ.... जी.... हाँ.... जब दिल और मन दोनों करें तब वही प्यार हैं।
हमेशा वह मीठी मुस्कान बस.... पास रहें यहीं आत्मा जब चाहें तब जान लेने की ज़रूरत ही कहाँ पड़तीं हैं क्यों की तब यह सब बातें समजने के लिए मन कहा खालीं होता हैं।
सब कुछ एक ही लगने लगता हैं।
उस मुस्कान की मिठास आत्मा पर कब के अपने रंग उडेल चुकी होतीं हैं।
बस.... वह मिठास ही मिठास दिखनें तथा महसूस होनें लगतीं हैं।
इसी के साथ "देखभाल" भी अपना दामन "प्यार" से जोड़ लेतीं हैं।
बस..... अब बाकी बातें महसूस कर लो....
यही प्यार के प्रति स्नेह होगा, उस मिठीसी मुस्कान के प्रति प्यार होगा।
प्यार.... बस.... महसूस कर लीजिए....
Friday, August 7, 2009

भूतकाल से सीखना....
भूतकाल से सीखना.... इन्सान को मिलीं एक बहोत बड़ी ताकद और एक बहोत बड़ा वरदान हैं।
अपने अतीत को, अपने भूतकाल को याद कर पाना, यानि बीती जिन्दगी को फिर से दोबारा जीने का मौका मिलना एक वरदान ही तो हैं।
भूतकाल से सीखना यानि सोने की खान मिलने के बराबर हैं।
यह वो चीज़ हैं जो भूतकाल में की हुई गलतियों पर विचार कर के अपने मंझिल के प्रति आगे बढ़ा जाए।
जब वर्तमान काल में हो रहीं गलतियाँ कम ना हो रहीं हो तो यह वह समय हैं जब भूतकाल से बहोत कुछ सिखा जा सकता हैं।
भूतकाल हमारें निकटतम मित्र की तरह होता हैं, जो हमें मुश्किल समय में सही राह दिखा कर आगे बढ़नें में मदद कर सकता हैं।
भूतकाल से सीखनें को मिलना यानि परिस मिलनें के बराबर हैं, यह मुश्किलों को आसन तो नहीं करता, पर हाँ, मुश्किलों से उभर कर उन से लड़ने ताकद ज़रूर देता हैं जो एक महत्वपूर्ण लडाई लड़ने के लिए काफी हैं।
भूतकाल से सीखना.... विकसित बनने के प्रति बढाया हुआ पहला कदम....
Wednesday, August 5, 2009

नायक....
नायक.... किसे कहा जा सकता हैं नायक....
सिर्फ़ उसे जिसमें हर परिस्थिति का सामना करने की तैयारीं हैं, भावना हैं....
जब यह भावना होतीं हैं तो ऐसे परिस्थिति से सामना करने की ताकद और हिम्मत अपने आप आ जाती हैं।
नायक.... एक अनुभव का भंडार होता हैं।
नायक.... परिस्थिति के हर रंग तथा पहलु को जान तथा जी चुका होता हैं।
एक नायक के लिए ख़ुद के प्रति इमानदार होना बहोत ज़रूरी होता हैं।
नायक परिस्थितियों से अपने आप बन तथा सवर जातें हैं।
एक नायक की इच्छा ही परिस्थितियों का रंग-ढंग बदल देतीं हैं।
नायक.... परिस्थितियों ने बनाया हुआ एक अद्भुत हिरा....
Monday, August 3, 2009

जीत के प्रति इंतजार तथा संयम....
यह एक संयम की भावना होतीं हैं।
आत्मविश्वास के साथ साथ संयम का होना भी आवश्यक हैं।
हर बात को संयम ही तो आगे ले जाता हैं।
इंतजार.... संयम का एक भाग होता हैं।
संयम ही आत्मविश्वास को जीत के प्रति आगे बढाता हैं।
संयम एकाग्रता बढाता तथा बनाए रखता हैं।
संयम से एकाग्रता बढ़तीं तथा संदिग्धता घटतीं हैं।
संयम से लक्ष्य पर ध्यान बने रहता हैं।
संयम.... लक्ष्य के प्रति ले जाने वाला एक अच्छा तथा सच्चा मित्र....
Friday, July 31, 2009

जीत....
जीत.... आत्मा के अन्दर धगधगती हुई आग होतीं हैं।
जब कर के दिखाना ही सब कुछ बन जाता हैं, जो अन्दर ही अन्दर बहोत समय से सुलगती हुई आग जब बहोत ताकद और आत्मविश्वास से बाहर आतीं हैं वो "जीत" ही होतीं हैं।
जीत.... एक संयम का परिणाम होतीं हैं, जीत.... एक तपस्या का परिणाम होतीं हैं।
जब सब कुछ, हर एक बात आत्मा से निकलती हैं, अपने ही जोश के साथ जब आगे बढ़तीं हैं, तब वो हर बात जीत का रूप लें लेतीं हैं।
जीत.... एक दृष्टिकोण का परिणाम होतीं हैं।
जीत.... लक्ष्य के प्रति बढाया हुआ हर सफलतम कदम का परिणाम होतीं हैं।
जीत.... ध्यान बनाए रखनें का परिणाम होतीं हैं।
जीत.... आत्मा की गहरीं तथा प्रबल इच्छा....
Thursday, July 30, 2009

शिक्षा....
शिक्षा.... मनुष्य जीवन का एक महत्वपूर्ण अंग होता हैं।
जीवन का पाठ हमेशा पढ़ा जाता हैं ना की पढाया जाता हैं।
लेकिन हाँ जब कभी किसी लायक मनुष्य से कुछ सिखने मिलें तो उसे सिख लेना चाहिए।
शिक्षा जब कभी भी, जहाँ कहीं पर भी मिलें मनुष्य ने उसे सिख लेना चाहिए।
जब हमें शिक्षा मिल रहीं हों तो हमें इसे हमारा सदभाग्य समझ लेना चाहिए।
जब शिक्षा मिल रहीं हों तो उसे ध्यान से और समतोल मन से समझ तथा सिख लेना चाहिए।
शिक्षा मिलना यह हमारा महत्भाग्यहोता हैं।
शिक्षा देने वाला हमारें दोषों को घटाता नही बल्कि हमारें गुणों को बढाता हैं, ऐसे गुणों को जिससे हम हमारें दोषों को मिटा सकें।
हमारें दोष हमें ही मिटानें होतें हैं। शिक्षा देने वाला तो हम में वो ताकद बढ़ा देता हैं जिससे हम ख़ुद हमारें दोषों को जान सकें और उन्हें मिटा सकें।
किसी समस्या को सुलझानें का एक बहोत ही सरल उपाय यह हैं की उस समस्या को अच्छी तरह और पुरी तरह जान ले की असल में समस्या क्या हैं।
अगर यह हम पुरी आत्मीयता से करलें तो उपाय अपने आप सामने आ जाएगा। फिर तो ना उपाय ढूँढना पड़ेगा और ना उसके प्रति कोई कष्ट उठाना पड़ेगा।
बस.... समस्या क्या हैं यह अच्छी तरह जान तथा पहचान लें।
कोई चाहे कितनी भी कोशिश क्यों न करें हमारें दोषों को मिटा नहीं सकता।
हमारें दोष हमें ही मिटानें होतें हैं। क्यों की हम ही वो व्यक्ति होतें हैं जो अपने आप को औरों से ज्यादा भली भांति जानते हैं।
शिक्षा.... मनुष्य जीवन का एक महत्वपूर्ण अंग....
Wednesday, July 29, 2009

तैयारी....
कुछ पाने की इच्छा होना और उस के लिए शुरुवात करना तैयारी कहलाती हैं।
इसमें इच्छा होतीं हैं। इसमें दृढ़ निश्चय होता हैं।
इसमें विजय पाने की चाहत होतीं हैं।
इसमें विजय पाने के प्रति समर्पण होता हैं।
इसमें खुशी होतीं हैं। इसमें आत्मविश्वास होता हैं।
इसमें आत्मा का दर्पण झलकता हैं।
तैयारी आत्मा की अंदरूनी इच्छा तथा चाहत होतीं हैं।
इसमें ध्यान सीधा मंजिल पर होता हैं।
इसमें जीतना ही लक्ष होता हैं।
इसमें हर बात के लिए मानसिक तथा शरीरिक संतुलन बनाया जाता हैं।
तैयारी हर चीज़ की जान होतीं हैं।
तैयारी.... एक दृष्टिकोण.....
Tuesday, July 28, 2009

प्रशिक्षक....
प्रशिक्षक बनने की इच्छा करें तो अच्छें खिलाड़ी अपने आप बन जाओगे।
अगर अच्छा नायक बनने की इच्छा हो तो अच्छा अनुयायी बनने की कोशिश करें।
प्रशिक्षक एक अनुभव होता हैं। हमारीं खामियों तथा त्रुटियों को प्रशिक्षक अच्छीं तरह जान तथा पहचान सकता हैं।
हमारें अन्दर सो रहे स्वत्व को प्रशिक्षक जगा सकता हैं।
हमारीं खूबियों को ताकद में बदलना प्रशिक्षक अच्छीं तरह जानता हैं।
प्रशिक्षक का ध्यान ऊपर से निचे की ओर होता हैं, जबकि एक खिलाड़ी का ध्यान निचे से ऊपर की ओर होता हैं।
प्रशिक्षक हर बात को आसानी से भाप सकता हैं।
प्रशिक्षक शिस्त होता हैं। प्रशिक्षक खिलाड़ियों की प्रति नहीं बल्कि ख़ुद के प्रति कठोर होता हैं।
इसीलिए कोई निर्णय लेते हुए उसे सबसे पहले अपने प्रति कठोर बनना पड़ता हैं।
प्रशिक्षक हमारा सबसे पहला शुभचिंतक होता हैं।
माता पिता के बाद प्रशिक्षक का ही मान होता हैं। माता पिता भी प्रशिक्षक का रूप हो सकतें हैं।
प्रशिक्षक.... हमारीं जिंदगी का शिल्पकार....
Monday, July 27, 2009

ताड़ना....
किसी बात को सही तरीके से पहचानना "ताड़ना" कहलाता हैं।
सही ढंग से और पूर्णता युक्त तरीके से महसूस करना "ताड़ना" कहलाता हैं।
"ताड़ना" एक कसब हैं, एक कौशल्य हैं।
इसे सही तरीके से जानना तथा महसूस करना ज़रूरी होता हैं।
इसमें नज़र होतीं हैं। इसमें देखना और समझना बहोत महत्वपूर्ण होता हैं।
इसमें प्रामाणिकता होतीं हैं। "ताड़ना" एक क्रिया होती हैं।
निर्णय लेने में ताड़ने की प्रक्रिया एक महत्वपूर्ण भूमिका निभातीं हैं।
"ताड़ना".... एक बहोत ही महत्वपूर्ण कौशल्य....
Sunday, July 26, 2009

चक दे....
चक दे.... इस शब्द में बहोत ताकद हैं।
पुरी तरह शक्ति से भरा हुआ हैं ये शब्द।
इसमें निश्चय हैं।
इसमें पुरा समर्पण हैं।
ये ताकद हैं। ये हिम्मत हैं। ये आत्मविश्वास हैं।
ये निडर हैं। इसमें सबसे खास.... आदर हैं। इसमे इज्जत हैं। इसमें मन और दिमाग का समतोल हैं।
इसमें शिस्त हैं। इसमें कदर हैं। इसमें पूर्णता का निश्चय हैं।
इसमें सहनशक्ति हैं। इसमें धेर्य हैं।
इसमें प्रमाणिकता हैं।
चक दे..... बस... चक दे..... और कुछ नहीं.....
Thursday, July 23, 2009

आदर्श....
आदर्श.... मन का एक लक्ष्य।
आदर्श मन का समर्पण होता हैं।
आदर्श आत्मा का केन्द्र होता हैं। आत्मा का प्रतिबिम्ब होता हैं आदर्श।
आदर्श परिश्रम होता हैं। आदर्श लगन होता हैं। आदर्श मन की प्रेरणा होता हैं।
आदर्श मन का केंद्रबिंदु होता हैं।
आदर्श एक स्वाभिमान होता हैं। आदर्श एक दृढ़ निश्चय होता हैं।
आदर्श एक सपना होता हैं।
आदर्श एक जीवन होता हैं। आदर्श एक स्थाई रूप होता हैं।
आदर्श जीवन का एक सपना होता हैं।
आदर्श हमारीं जिंदगी होता हैं।
आदर्श.... मन और आत्मा का स्थाई बिन्दु....
Wednesday, July 22, 2009

दूरदृष्टि.... आत्मा में विजय की भावना का आभास....
Tuesday, July 21, 2009

मन के रंग....
मन के रंग.... कैसे होतें हैं कभी कोशिश की हैं देखनें की या महसूस करनें की ?
मन के रंग.... ज्यादातर तो परिस्थितियों पर ही निर्भर करतें हैं।
आज अगर हम खुश हैं तो मन के रंग भी इन्द्र धनुष्य की तरह चमक तथा खिल उठातें हैं।
मन के रंगों की असली उड़ान और बरसात तो बचपन में ही देखनें मिलतीं हैं।
हर चीज़ में सच्चाई, मिठास और अपनापन होता हैं। बचपन में हम सब खुशी का अहसास पाने की तान में तथा पानें की ताक में रहतें हैं। क्या हो अगर हर चीज़ सरल और सुलभ होने लगें तथा दिखनें लगें ?
बचपन.... मन के हर रंग में रंग जाता हैं। इस रंग में रंगने के लिए इसे किसी आमंत्रण की ज़रूरत नहीं पड़तीं।
बस खुशी की एक फुहार मिलीं, खुशी का एक एहसास मिला और बस मन के रंग में रंग गए।
और बचपन माँ की गोद में हो तो........ फिर तो बस..... पूछों मत।
उस समय मन के रंग कैसे होंगे ? महसूस तो कीजिए।
मन के रंग..... बचपन और माँ के प्यार और स्नेह का एक अद्भुत मिलाप....
Monday, July 20, 2009

Saturday, July 18, 2009

शीतलता....
शीतलता.... किसे अच्छी नहीं लगतीं ?
इसमें ठंडक होतीं हैं।
इसमें मधुरता होतीं हैं। इसमें अपनापन होता हैं। इसमें स्वागत छिपा होता हैं।
इसमें मिठास होतीं हैं। यह एक मनभावन भावना होतीं हैं।
यह आत्मा को हमेशा शांत रखती हैं। यह एक मीठी भावना होतीं हैं।
इसमें पवित्रता होतीं हैं। इसमें आत्मा की स्थिरता देखनें मिलतीं हैं।
शीतलता हमेशा स्थैर्य होतीं हैं। इसमें आत्मा की खुशी झलकतीं हैं।
इसमें एकांत देखने मिलता हैं। इसमें शांतता होतीं हैं।
शीतलता.... आत्मा का एक कोमल एहसास....
Friday, July 17, 2009
